बचपन
यादों के साये पसेरे
चलना माँ के
पल्लू पकड़े
कभी शैतानी
मनमानी कभी
यूँ …..
हठ की आदत
हरेक बचपना एकसमान होवे
हो जाए गलती
कई हँसते थे इस पर
वो बचपन …
खुला-खुला सा मन
मन में कोई
अलगाव नहीं
कोई द्वेष नहीं सागर जैसा
शांत और निश्चल
चंचल बहारों में झूमें
कोमल तन
दिल है तन्हा
यूँ सोचे मन ही मन
वो प्रेम सत्कार ….
सभी को सम्मान
खोट वाली बात नहीं
सोच अब उलझन में मेरे
काश?
बचपना फ़िर मिल पाता
उसी बचपन में, मैं घुल पाता
सही है ….. सत्य प्रखर
ईश हमारे
इसी ज़मीं के हैं वंशज
बचपन वाला रूप
सामान है ईश्वर स्वरुप …
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03/02/2017 मौलिक रचना
——————#बृजपाल सिंह