बचपन के वो दिन
वो दिन भी क्या दिन थे,
जब धूप हमें छाँव लगती थी ।
खाली पेट भी जो होते हम,
तब भी हमें फुर्ती लगती थी ।
बचपन के वो दिन थे अपने,
दिन में भी हम देखते सपने ।
रात में नींद जल्दी न आती,
पर सुबह बहुत जल्दी हो जाती ।
खेल कूद माटी में करते,
हैंडपंप से पानी भरते ।
ठन्डे पानी से होता स्नान,
गर्मी सर्दी एक सामान ।
छुट्टी होती दादी के घर,
फिर तो निकल आते थे पर ।
न कोई डांट न कोई मार,
ढेर सारा मिलता था प्यार ।
अब तो बस याद है आते,
बचपन के वो पल बिसराते ।
अस्त व्यस्त चिंता रहित,
जब ही कराता तब सो जाते ।
आधुनिक मानव का संसार जटिल,
ढूंढे ख़ुशी जो न पाए मिल ।
उसके पास नरम है बिस्तर,
पर सोने में बड़ी मुश्किल ।
इस भागा दौड़ी के जीवन में,
दिन तो बस यू ही बीत जाते ।
अब तो बस याद है आते,
बचपन के वो पल बिसराते ।