बचपन के दिन
रात में जब नींद आती थी,
औ’ छत पे सोने जाते थे,
खुले आसमां और मंद हवा में,
हम तारे गिनते रह जाते थे।
चाँद की उन पुरानी,
सफेद कतरनों से,
खींचकर चमकते धागे,
हमारी दादी और नानी,
जब सुनाया करतीं थीं,
बुनकर नई कहानी ।
और जब टिमटिमाते ,
लहराते,मटकते तारें,
नींद का मीठा शहद,
हमारी आंखों में टपकाते,
और सपनों की ट्रेन के डिब्बे
जब धक्का मुक्की कर के,
हमारी चारपाई वाले स्टेशन,
जब धीरे से आते,
वो उतावलापन,
वो दूर परियों के देश जाना,
दादी की उन कहानियों का,
पल में सच हो जाना,
किसी ख्वाब से कम ना थे,
बचपन के वो हमारे दिन,
जब सोने जाते थे छत पे,
चाँद तारों के संग।
©ऋषि सिंह “गूंज”