बचपन की यादें
बचपन वाली यादों के
जब किस्से चल जाते है।
दिल में छुपा हुआ दर्द
आँखो में छलक आते है।
एक धीमी सी मुस्कान
होठों पर आ जाती है।
मन बैठे- बैठे वहीं से
बचपन में चली जाती है।
वह बचपन वाली मस्त हवाओं।
में जाकर खो जाती है ।
वो अल्हड़ सी जिन्दगी
आज भी याद बहुत आती है।
न पंखे की थी जरूरत ।
न बिजली की थी चिन्ता ।
पेड़ो की छाया में बैठ कर
गर्मी कट जाती थी।
ठंडी में आग जलाना
ही काफी होता था ।
और दूध- हल्दी के संग
ठंडी ऐसे ही कट जाती थी।
दोस्तों के बीच बैठकर
कैसा सकून आता था।
उनके बातों को सुनकर
क्या खुली हँसी आती थी।
ठहाकों वाली वह हँसी
आज भी याद आती है।
आज भी उस सुकून के
लिए मन तरस जाती है।
किसी के घर चले गये।
किसी से कुछ खा लिया।
कहाँ अपने पराये का
कोई सुरूर हुआ करता था।
झूले की जरूरत न थी।
पेड़ की डाली काफी थी।
उसके ऊपर – नीचे कर ही,
हम खुश हो जाया करते थे।
किसी ने कुछ पैसे क्या दे दिए ,
खुद को धनवान समझने लगते थे।
दिन – रात उन पैसो को
गिनने में लग जाते थे।
इस क्रम को बार-बार
हम दोहराते रहते थे।
पैसा खत्म भी हो जाए तो
कहाँ चिंता रहता था ।
बिना पैसो के भी हम हाट,
बाजर घुम जाया करते थे।
किसी तरह का रोक-टोक का,
कहाँ परवाह हुआ करता था ।
और न किसी तरह कि जिम्मेदारी
का बोझ हुआ करता था।
काश जीवन एक बार
फिर वही सुकून लौट आँए ,
और अपने जीवन में हम
फिर से खुलकर हँस पाए।
~ अनामिका