बचपन की छाँव में
आओ चलें बचपन की छाँव में…..?
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बड़े दिनों बाद
हमारे तरफ का रूख किया यार,
बचपन का लंगोटिया यार
आज इतने दिनों बाद
कैसा है मेरा यार ?
कुछ तो बताओ
कुछ भाभीजी का सुनाओ
बच्चों को मेरा प्यार देना
जिन्दगी से कुछ तो क्षण
यार मेरे लिए उधार लेना,
चलो एकबार फिर से
उसी बचपन में खो जाये
आओ एक दूजे को गले लगाये।
कभी कभी हम
भावनाओं में बह जाते हैं
क्या करे यार
हृदय के दर्द को
शब्दों में कह जाते है
आओ चलें फिर से
उसी बचपन की ओर
जहाँ पेड़ और पौधे थे
खेलने को हाथो में
गिल्ली और ड़ंड़े थे।
हम उसी ओर चलते है
जहाँ अपनों का संग था
ऊर्जावान जीवन और
मन में उमंग था।
ना खर्चों की तंगी
ना कोई आपाधापी थी
खाने को अच्छे पकवान
सुनने को दादी नानी की
वो अमर कहानी थी।
आओ चलें उसी बचपन की छाँव में
एकबार फिर से दौड़ें-कूदें
अपने उस छोटे से गाव में
कितना सुकून था
उन बगीचों में
गांव के छोटे फूहड़
उन गलीजों में
तब ना कोई जिज्ञासा थी
ना कोई अभिलाषा थी
अभावग्रस्त बचपन
फिर भी खुशियाँ भरमार थी
अपनो का साथ
जिन्दगी खुशहाल थी।
आओ चले उसी बचपन की ओर
जहाँ खेल का मैदान था
खेत ओर खलिहान था
तब दोस्ती भी कमाल थी
कभी लड़ते और झगडते
कभी गले से लगा
अकवार में जकड़ते
कभी रूठ जाते
बुरा सा मुह बनाते
फिर गले भी लगाते,
पांच पैसे की वो
गोल वाली धारीदार मिठाई
खरीदना, तोड़ना
फिर मिल बांट कर खाना
आज सोचता हूँ
आखिर कहां गया
ओ यारों का जमाना।
वाकई आज हम बड़े हो गये
सबके के सब अपनी
परेशानियों संग खडे हो गये,
अब ना समय है ना साथ है
अब ना ओ बचपन वाली बात है
हर तरफ सन्नाटा है
भागदौड़ भरी जिन्दगी है
समय का बहाना है
इसिलिए कहता हूँ
आओ चलें उसी बचपन की ओर
जहाँ समय ही समय था
झुमें, नाचे, गाये
फिर से खुशी मनायें
खेलें खेल कबड्डी
यारों को गले लगायें
हा चलते हैं उसी बचपन की छाँव में
फिर से चलते है अपने उस छोटे गांव में।।।
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”