बगावत
मेरा दिल मुझसे ही बगावत कर बैठा,
बड़ा नादान निकला ये क्या कर बैठा।
लाख समझाया के छोड़ भी दे ये ज़िद ,
हरजाई क्यों वादा खिलाफी कर बैठा।
यह इश्क एक आग का दरिया होता है ,
ना मालूम क्यों अपने हाथ जला बैठा।
काश! ना उलझाता कांटों में ये दामन ,
शदाई जिस्म भी लहूलुहान कर बैठा।
कहा था मैने उसका तसव्वुर भी ना कर ,
फिर भी दीवाना ख्वाबों में सजा बैठा ।
दिल तो आखिर दिल है कहां मानता है ,
जिस पर फना होना था उसे हो बैठा ।
माना मुहोबत दुनिया का हसीं जज्बा है ,
मगर दोनो ओर से निभा तभी ठीक बैठा ।
एकतरफा इश्क जहां में नाकाम ही हुआ ,
इस राह में जो भी चला ठोकर खा बैठा।
“अनु “समझाए दिल को न कर नादानियां,
तेरे तरह हर आशिक जीस्त तबाह कर बैठा ।