फ्राक गर्ल
ओ आती थीं अक्सर,
बाबा के दुकानों पे
छोटी थी, चंचल थी
थोड़ी तोतली उसकी बोली थी
फ्राक को पोटली बनाकर
कभी गेहूं-कभी धान
कभी मक्का,तो कभी न जाने
कैसी-कैसी अनाजे लाती थीं
आती थीं जब भी दुकानों पे
हवा गीत सुनाती थीं
चंचल था सभाव उसका
सबको अपने बातों से भरमाती थी
नाम नहीं जानता था उसका
सिर्फ फ्राक वाली कहता था
उसकी आवाज सुनते ही
मैं फौरन छत्त पे चला जाता था
जब कभी उसके नज़र, मेरी नज़र से टकराती थी
ओ तुरंत हस पड़ती थीं
मैं उसे देखकर शर्म से छुप जाता था
फिर धीरे से उसे देखने लगता था
लाती थी ओ अनाज फ्राक भर के
मगर थोड़े से हाथों में समान लेकर जाती थीं
ये देखकर मुझे छनक पड़ता था
मगर ओ खुशी-खुशी से, सामानों को देखती फूली नहीं समाती।
ऐसे-जैसे बाबा ने उसकी उम्मीदों से, ज्यादा झोली भर दिया है
मगर मैं बाबा को खूब जानता था
किन्तु दुकानों का मोल-भाव ना जानता था
उसे ख़ुश देखकर, मैं भी खुश हो जाता था
उछल-उछल कर,घुम-घुमकर
अपनी धुनों में जाती हुई, अपनी गलियों में खो जाती थीं
फिर आने की इंतजार उसकी
आज भी हर-पल उसकी रहतीं हैं।
नीतू साह(हुसेना बंगरा)सिवान-बिहार