फेसबुक की बनिया–बुद्धि / मुसाफ़िर बैठा
जहाँ तक फ़ेसबुक पर किसी पोस्ट की आम स्वीकार्यता की बात है तो इस ‘फिनोमिना’ की तुलना आप पॉपुलर सिनेमा और कला सिनेमा अथवा पॉपुलर साहित्य और दलित साहित्य से कर सकते हैं।
कला सिनेमा एवं दलित साहित्य क्रमशः दर्शक और पाठक पाने के मामले में काफ़ी पिछड़ जाते हैं।
स्पष्ट होकर कहें तो यह अजीब विडंबना है, त्रासदी ही है कि अक्सर पोस्ट की सीरत नहीं देखी जाती है, पोस्ट करने वाले की सूरत देखी जाती है।
बड़ा नाम वाला (बनिया) है तो उसका गुणवत्ताहीन उत्पाद भी, समान भी आसानी से बिक जाता है।
फेसबुक पर भी बड़े नाम वाले अथवा अच्छी सूरत वाली कमसिन महिला की पोस्ट like-comment पाने के मामले में बवाल काटती है, लोग उसमें समा जाने को बेचैन हो उठते हैं। लोग सहज ही ढल जाते हैं, न्योछावर हो जाती है उसपर। भेड़ियाधसान वाली स्थिति इस परिघटना को कह सकते हैं आप।
दुनिया पैकेजिंग एवं विज्ञापन (प्रस्तोता) से ही माल के अच्छा होने की गारंटी पा लेती है, खुद से पड़ताल करने की जहमत उठाने की जरूरत नहीं समझती!