फेकूराम
“फेकूराम”
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अपना घर तो , संभलता नही;
ये , दूसरों का घर संभालते है।
अपनी जो ,चोरी पकड़ी जाए;
तो ,गैरों का बंगला झांकते हैं।
रहे मुंह में , एक भी दांत नहीं;
कच्चा चना,वे खूब फांकते हैं।
कभी कुछ, वे कर सकते नहीं;
बस सदैव ही , लंबा हांकते है।
खुद का कद,तो नुकसान सहे;
दूसरों का ही, जद वे नापते हैं।
घर में जब,आज आग लगी है;
कल की संकट , को भांपते है।
दिन में , तो कुछ दिखता नहीं;
रात , आंखें फाड़ के ताकते हैं।
बेईमानी , रग -रग में बसता हो;
ईमानदारी का,राग अलापते हैं।
खड़े-खड़े, बातों में अधर्म झोंके;
बैठकर धर्म की माला जापते हैं।
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स्वरचित सह मौलिक
…..✍️पंकज कर्ण
…………कटिहार।।