फूल नहीं प्यारे मुझको केवल कांटे ही भाते हैं
रक्त से जीवन रंजित कर …
जो तीक्ष्ण व्यथा दे जाते हैं…
है फूल नहीं प्यारे मुझको… केवल कांटे ही भाते हैं!!
जो दिखा मुझे मन का दर्पण कुछ कटु सत्य कह जाते हैं… और खरी शुष्क- सी वाणी से
जो अंतर् तक भर आते हैं… मुझको है प्रिय वही.. चुभते जो ..भीतर तक गढ़ जाते हैं…
है फूल नहीं प्यारे मुझको… केवल कांटे ही भाते है
नहीं मचलता मन मेरा, सुंदरता की अभिलाषा में …
लक्ष्य से जो विचलित कर दे,,, उस चित्ताकर्षक भाषा में …
जो ललकारो से रिक्त सदा…. वे कंठ मुझे भटकाते हैं …
है फूल नहीं प्यारे मुझको केवल कांटे ही भाते हैं….
नहीं रंजन- मंजन पर मिटती…
नहीं चाह कोई मुझको चाहे..
चाहे तो मेरे ही पथ पर हर प्रलय घटे मरघट आए….
हे ठोकर मेरी उस जग को,, जड़ता पर जो इठलाते है …
है फूल नहीं प्यारे मुझको केवल कांटे ही भाते हैं…
नहीं पूछ -पूछ कर हूं करती…
मैं अपने कदमों को गतिमान.. कहो पूछ- पूछ कर आया है क्या?
आया है जब भी तूफान… अस्वीकार मुझे एक कतरा तक …
जो राह को सुगम बनाते हैं …
है फूल नहीं प्यारे मुझको केवल कांटे ही भाते है…
जिनको किस्मत से मिला है सब …जो जीवन भर बस सोए हैं …हैं बहुत अभागे वह सच में…. अनभिज्ञ हैं वह क्या खोए हैं… अपना जीवन जीने को जो मृत्यु से से दाव लगाते हैं …. हे फूल नहीं प्यारे मुझको केवल कांटे ही भाते हैं….
नहीं प्रणय मेरे मन को भाए.. लगे प्रिय मुझे केवल आहे ..
जो भोर को दिखला दे सूरज और तम भी जिससे भय खाएं
..
यह मीत -मिलन के किस्से मादक …मुझको तो बस झुंझलाते है
है फूल नहीं प्यारे मुझको केवल कांटे ही भाते हैं…