फूलों की चाहत
मैं न चाहूं किसी के गले का सुनहरा हार बनूं।
मैं न चाहूं किसी के बालों के गजरे का भाग बनूं।
मैं न चाहूं किसी के प्यार का इजहार बनूं।
मैं न चाहूं किसी डोली के स्वागत का धार बनूं।
मैं न चाहूं किसी मंदिर मस्जिद के देवों का चढ़ाव बनूं।
मैं न चाहूं किसी महफिल सजने का गुलजार बनूं।
मैं न चाहूं किसी किसी पक्षी का आहार बनूं।
मैं न चाहूं किसी गंगा के लहरों का धार बनूं।
मैं न चाहूं किसी त्यवाहरों का परिवार बनूं।
मै तो बस इतना चाहूं जिधर से वीर सैनिक निकले।
उस गली में मै उनके चरणों की धूल बनूं।
संजय कुमार✍️✍️