फिसलती रही जिंदगी
आग हरदम उगलती रही जिंदगी
साथ मेरे टहलती रही जिंदगी
मौत का वक़्त तो था मुकर्रर मगर
रोज मुझको निगलती रही जिंदगी
जलते सूरज की पेशानी को चूमकर
साँझ बनकर के ढलती रही जिंदगी
ख्वाब़ बेरंग होते गए धूप में
रंग पल-पल बदलती रही जिंदगी
सत्य की राह पर जब से आए कदम
बस अनाथों सी पलती रही जिंदगी
उस पे खुद से भी ज्यादा भरोसा था पर
मुझको मुझ से ही छलती रही जिंदगी
मुट्ठियाँ बाँधकर मैं खड़ा था मगर
रेत जैसे फिसलती रही जिंदगी