फिल्म ‘काला’ की समीक्षा
यूं तो उस दिन फिल्म देखने का मूड बिल्कुल भी नहीं था. वैसे भी बचपन से मन:पटल में ही अंकित कर दी दी गई फिल्मों के प्रति नकारात्मकता के कारण किशोर-युवावय में फिल्में न देख सका, फिर अब नौकरी की व्यस्तता के कारण टॉकीज में जाकर या घर पर ही टीवी में फिल्म देखने के लिए तीन घंटे का वक्त निकालना मुश्किल रहता है. 14 जून 2018 गुरुवार को चूंकि मेरी ड्यूटी का वीकली आॅफ था. फिर पत्नी का भी आग्रह था तो मैं भी सहज तैयार हो गया. नागपुर शहर के हृदय स्थल सीताबर्डी में चूंकि कुछ काम भी था, वहां काम निबटाया. इसके बाद पहुंचे पंचशील टाकीज. रजनीकांत की फिल्म लगी थी- काला. नाम में कोई आकर्षण नहीं था. चूंकि दूसरी टाकीज जाने का वक्त नहीं बचा था इसलिए मजूबरी में टिकट ले ही लिए और थियेटर के अंदर पहुंच गए. फिल्म शुरू हुई. फिर क्या था स्टोरी से जो बंधे तो बंधते ही चले गए. अब तक की देखी फिल्मों से मुझे यह फिल्म एकदम हटकर और मन-मस्तिष्क को झिंझोड़नेवाली बेहद डायनॉमिक लगी. वैसे भी मुझे डायमेंशनली फिल्में अच्छी लगती हैं. वैसी कहानी जिससे जीवन का कुछ नया आयाम और नया दृष्टिकोण मिले. पता चला पिछले सप्ताह 7 जून 2018 को यह फिल्म प्रदर्शित हुई थी. मैं सोचने लगा कि यह फिल्म रिलीज डेट पर ही क्यों न देखी जिससे और भी लोगों को देखने के लिए प्रेरित कर पाता. सच कहूं मुझे यह फिल्म न सिर्फ अभिनेयता, संगीत, कथनशैली और कलात्मक दृश्यों के प्रभावी और मनोरंजक छायांकन-बुनावट के कारण बल्कि अपने कठोर सामाजिक कथ्य और नई राजनीतिक दांवपेंचों के लिए भी जबर्दस्त लगी. फिल्म बहुत ही निडरता के साथ धार्मिक उन्माद की राजनीति पर ठीक वैसे ही चोट करती है जैसे कभी दक्षिण भारत में पेरियार रामासामी नायकर ने अपने समय में किया था. मुझे पता नहीं कि अन्य दर्शक और मेरे इस लेख के पाठक पेरियार के जीवन-संघर्ष से कितना परिचित हैं? अगर नहीं हैं तो होना चाहिए.
पूरी फिल्म देखने पर यह समझ में आया कि यह फिल्म वस्तुत: तथाकथित सभ्यता के विश्वासघात, धोखाधड़ी और हत्याओं का खुलासा करती है. इसके साथ ही मुझे तो यह लगता है कि सुपर स्टार रजनीकांत अभिनीत यह फिल्म इस सदी की पहली भारतीय फिल्म है जिसने कला में मौजूद सारे औपनिवेशिक और भारतीय सामाजिक व्यवस्था के शोषणपूर्ण कठोर चौखटे को बड़े तार्किक और कलात्मक ढंग से धो डाला है. भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जानेवाले दादासाहब फाल्के द्वारा स्थापित नस्लीय, धार्मिक और जातीय फिल्मों की परंपरा को सौ साल बाद सीधे-सीधे चुनौती देने वाली यह फिल्म नि:संदेह एक युगांतकारी है, जो न सिर्फ हमारे देश में चल रहे सामाजिक आंदोलन के लिए भी एक नया सौंदर्य रचती है बल्कि इसका विस्तार करते हुए एक नई चेतना भी सामने रखती है.
भारत की हर फिल्म में खलनायक प्राय: काला होता है जिसे गोरा नायक मार कर ‘धर्म’ और ‘सत्य’ की रक्षा करता है. हमारे मन-मस्तिष्क में बैठा दिया गया है कि काला राक्षसी है, असुर है, अपवित्र है, अपराधी है, हत्यारा है, बलात्कारी है आदि-आदि. समाज और साहित्य भी नस्लीय भाव वाले उपमानों और मुहावरों से भरा पड़ा है. कुलटा, कलमुंही, काला-कलूटा, बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला, काला अक्षर भैंस बराबर आदि. ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनमें काला सिर्फ और सिर्फ नकारात्मक है. ‘काला’ फिल्म इस रंगभेदी अर्थ को न सिर्फ उलट देती है बल्कि हमें अपनी बनी-बनाई धारणा पर सोचने को बाध्य करती है.
‘काला’ फिल्म में उच्च वर्णी सफेदपोश खलनायक हरि अभ्यंकर (नाना पाटेकर) करिश्माई नायक काला कारिकालन (रजनीकांत) का मजाक उड़ाते हुए पूछता है- ‘काला’ कैसा नाम है रे! नायक का जवाब होता है-काला मतलब काल. काल करिकालन! इस जवाब की पृष्ठभूमि देश में चल रहे देशव्यापी सामाजिक-आर्थिक न्याय आंदोलन तो है ही, बढ़ते पूंजीवाद के विरुद्ध जल-जंगल-जमीन के पक्षधरों के बीच मौजूदा संर्घष की भी दास्तान भी है.
‘देश को स्वच्छ और शुद्ध’ बनाने के नस्लीय एजेंडे के खिलाफ फिल्म का केंद्रीय मुद्दा जमीन का संघर्ष है. शुरू से अंत तक एक ही नारा गूंजता रहता है ‘जमीन हमारी है’ फिल्म बताती है कि जमीन किसी सामंत या कॉरपोरेट की नहीं है बल्कि उन लोगों की है जिन्होंने इसे अपनी मेहनत से आजीविका और रहने लायक बनाया है. इस दृष्टि से यह धारावी की नहीं, बल्कि देश के उन सभी लोगों और विशेषकर आदिवासी समुदायों की कहानी है जो पिछले 300 सौ सालों से यह उद्घोष करते आ रहे हैं कि जल, जंगल, जमीन पर पहला हक उनका है.
अरे मैं ही सबकुछ कह दूंगा तो आप क्या देखेंगे और चिंतन करेंगे. मेरी गुजारिश है कि जब कभी यह फिल्म टेलीविजन में आए, अपना बेशकीमती समय निकालकर अवश्य देखिए.भावनाओं और चिंतन का आवेग इतना है कि काफी विस्तार से इस पर अपने विचार रख सकता हूं. अभी बस इतना ही.