फिर लौट आयीं हैं वो आंधियां, जिसने घर उजाड़ा था।
फिर लौट आयीं हैं वो आंधियां, जिसने घर उजाड़ा था,
लिबास अपनेपन का ओढ़कर, सीने में खंजर उतारा था।
समंदर की हर लहर से लड़ना, कहाँ हमें गंवारा था,
पर लहरों से टकराकर हीं, तो कश्ती ने किस्मत को संवारा था।
टुकड़े होंगे उम्मीदों के, ये हवाओं ने किया इशारा था,
पर नादानियाँ ऐसी हुईं कि, मैंने एक आस को विश्वास से निहारा था।
कभी कहते थे लोग दिल मेरा, मासूमियत का पिटारा था,
पर अब तो पत्थर भी घायल हो जाए, ऐसी शख्सियत का मारा था।
तपती मरुभूमि भी सहम जाए, उन रस्तों ने पुकारा था,
बारिशों ने भी बड़ी अदा से, मेरे अस्त्तित्व को नकारा था।
रूह तो कब की छोड़ गयी, ये जिस्म बस हड्डियों का शिकारा था,
एक आग जल रही थी आँखों में, जो इन साँसों का तन्हा सहारा था।
मुस्कराहट भरे अब लब थे, जिन्हें आंसुओं ने निखारा था,
और हृदयविहीन अस्तित्व था, जिसने मृदुभावनाओं को धिक्कारा था।