फिर मेरे शेरो – सुख़न
तरही ग़ज़ल
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फिर मेरे शेरो सुख़न से कोई जादू निकले
काश ! नज़रों से मेरी हो के अगर तू निकले
चार सू अब तो हलाहल ही नज़र आता है
कौन विषपान को इस दौर का शम्भू निकले
और भी हिन्द की शीरीं हैं ज़बानें लेकिन
चाशनी रूह में घुल जाय, जो उर्दू निकले
राह में कुछ तो मुसाफ़िर के उजाला करने
“रात आई तो शजर छोड़ के जुगनू निकले”
दूर से ही तेरे आने की ख़बर देते हैं
ख़ूब जासूस तेरे पाँव के घुँघरू निकले
कह्र आने से कभी रोक न पाया कोई
जब किसी बेबसो-मज़लूम के आँसू निकले
राम का नाम तो उल्टा ही रटे थे फिर भी
जो कभी जुर्म के पैकर थे वो साधू निकले
ख़्वाहिशें स्लेज़ की मानिन्द हुई जाती हैं
बर्फ के गाँव में जज़्बात के इग्लू निकले
आ भी जा अब कि तेरी याद के पहलू से ‘असीम’
मौत से हाथ मिलाने तेरा मजनू निकले
©️ शैलेन्द्र ‘असीम’