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26 May 2017 · 1 min read

फिर कली आज कोई महकी है

कितनी प्यारी सरस ये हिन्दी है
काव्य के माथे की ये बिन्दी है
?
प्यार को पाप जो समझते है
उनकी कितनी नजर ये गन्दी है
?
याद शायद किया सितमगर ने
आ रही आज हमको हिचकी है
?
क्यूं निकलती नहीं है ये जालिम
जान ना जाने किसमे अटकी है
?
दिल मे जिसके वो रब ही बसता है
फिर उसे डर क्या इस जहां की है
?
सोचता आदमी यही हर पल
हमसे ऊंची उड़ान किसकी है
?
मोअत्तर हो गई फिजां सारी
फिर कली आज कोई महकी है
?
मां की खिदमत में उम्र ये बीते
जिन्दगी वरना —— बेइमानी है
?
चांद से पूछ —-ले ये “प्रीतम” तू
प्यार की दे रहा ——–गवाही है
?
प्रीतम राठौर भिनगई
श्रावस्ती (उ०प्र०)

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