फिर अड़ गई है रात
बरस रहें हैं
और एक मुठ्ठी
यातनाओं के रेत
कण-कण कोरोना बनकर।
मेरी तरह
मन के गर्भ में
अनेकों आकांक्षा लिए
बाध्य है
खट्टे सपनों को
लिए जीने वाले.. ।
ओह ! सपनों को भी तो
अकाल पड़ा है।
हथेलियों से
भूख के रुग्न धूप को
रोक न पाने पर
अस्तित्वविहीन बने हैं
कर्म की तपस्या करने वाले
वो हाथ।
किंकर्तव्यविमूढ……….
सौंप दिया है खुद को
अपनी अस्मिता गिरवी रखकर
आशाओं के आश्रय में।
उधर देवता व्यस्त है
सृष्टि की नई संस्करण लिखने
और इधर शुभ-अशुभ की तराजू में
अँधेरे को अशुभ मानने वालों के लिए
फिर अड़ गई है रात॥