फितरत
परेशान हर हाल में
मुख्तसर से इस जहान में
हर एक की कोई न कोई फितरत रही।
ज़िंदा तो रहे सब, हर हाल में यहाँ
पर ज़िंदगी जी पाना
किसी किसी की फितरत रही।
यकीन तो इबादत सा
कर लिया था हमनें
पर उस यकीन को निभा पाना
न सब की फितरत रही।
अल्फाजों ने कुछ तो
बयाँ करना चाहा था मगर
बंदिश कलम पर लगाना
तुम्हारी फितरत रही।
इल्म तो कुदरत ने सभी को
दिया है कुछ ना कुछ
पर जाने क्यों हसद ही करना
ज़माने की फितरत रही।
रब कहाँ चाहता था कि
बँटे दीवारो दर और इंसान यहाँ
पर खुद ही अपने हिस्से बांट लेना
खुदगर्ज़ी की फितरत रही।
– डॉ0 सीमा वर्मा (सर्वाधिकार सुरक्षित)