मैं और मेरी फितरत
रही फितरत हमारी ये कि,मैं चुपचाप रहती हूँ।
दिया जो ज़िन्दगी हँसकर,सितम संताप सहती हूँ।
पचा लेती ज़हर सारे,सुधा में ढाल देती हूँ।
अँधेरा हो जहाँ दीपक,जतन से डाल देती हूँ।
झुका कर सर हमेशा से, बड़ों का मान रखती हूँ।
नहीं तकलीफ़ हो उनको,हमेशा ध्यान रखती हूँ।
किया जब चोट अपनों ने,हँसी में टाल देती हूँ।
अखरती बात है उनकी,मगर जल डाल देती हूँ।
सरलता सादगी मन में,सतत संतोष रखती हूँ।
रहे सुख चैन से परिजन,खुला हर कोष रखती हूँ।
निभाये दुश्मनी कोई,उचित व्यवहार करती हूँ।
सुखद जीवन रहे सबका,जतन हर बार करती हूँ।
मनुजता भाव मुझ में हो,विनय हर बार करती हूँ।
दिया जो ज़िन्दगी रब ने,सदा आभार करती हूँ।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली