फितरत
श्रीं
फितरत तुम्हारी है
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बदलते हम न मौसम से सुनो फितरत हमारी है ।
बदलते रंग गिरगिट से बनी फितरत तुम्हारी है ।।1
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कली को तोड़ लेते हो न तुम खिलने उसे देते ।
कभी किंचित न सोचा डाल की वह अति दुलारी है ।।2
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तिलक छापे लगा करके छिपा लेते सचाई तुम।
बड़े़ बहरूपिया तुम में छिपा बैठा शिकारी है ।।3
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बदल फितरत मिला क्या है विचारा क्यों नहीं तुमने?
दया की भीख माँगोगे कहे दुनिया भिखारी है ।।4
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उगेगा भी वही रोपा गया था बीज जैसा भी ।
हुई है गंग मन की सोचिये क्यों आज खारी है ?5
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नहीं भूला कहाता वह सुधारे भूल जो अपनी ।
भटक कर क्या मिला फितरत कहो फिर क्यों बिसारी है ?6
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हमें क्या है करोगे तो भरोगे भी यहाँ तुम ही ।
न फितरत छोड़ना अपनी यही ईमानदारी है ।।7
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महेश जैन ‘ज्योति’,
6- बैंक कालोनी, महोली रोड़,
मथुरा ।
मो०- 9058160705
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