फितरत न कभी सीखा
पिछली सदी का शख्स मैं
शराफत में जिया हूँ।
दिल से निभाया मैंने
वायदा जो किया हूँ।
सबको गले लगाते,
वाजिब हर बात मानी।
फितरत न कभी सीखा,
सादी थी जिंदगानी।
हो खास या मामूली,
सब साथ लिया हूँ।
दिल से निभाया मैंने
वायदा जो किया हूँ।
लोगों में थी मुहब्बत,
मिला करते सुबह शाम।
मेरे दौर में तो होते,
जुबाँ से सारे काम।
गैरों के खातिर भी मैं,
कई गम को पिया हूँ।
दिल से निभाया मैंने
वायदा जो किया हूँ।
घिर गए अब तो सारे,
हर जगह है मशीन।
न गीत ग़ज़ल महफ़िल
न संग कोई हसीन।
लम्हों में लगा पेंवन्द
किनारों को सिया हूँ।
दिल से निभाया मैंने
वायदा जो किया हूँ।
है दौर आज का जो,
सृजन को नहीं भाता।
अपने बने पराये,
कोई पास नहीं आता।
वो भी दिखाते फितरत,
जिन्हें जान दिया हूँ।
दिल से निभाया मैंने
वायदा जो किया हूँ।