फितरत कभी नहीं बदलती
विचारों के झंझावात में हर रोज उलझती
विचारों के अथाह सागर में डूबती- उतराती मैं ,
बिना किसी समाधान, वापस वहीं लौट आती हूं,
जहां मेरे एकाकीपन के सिवा ,दूसरा कोई नहीं होता
खुद को सही-गलत के तराजू पर बराबर तोलती हूं,
फिर भी, स्वयं को प्रश्नों को कटघरे में खड़ा पाती हूं,
निज अंतर्मन की परतों को एक-एक कर खोलती हूं,
यादों की मंजूषा में सहेज कर रखे हर पल को टटोलती हूं,
कभी मखमली यादें तो कभी तिरस्कार को चखती हूं,
तो कभी लंबी चुप्पी भरी रातों में अकेली विचरती हूं,
वापस अतीत की कड़ियों को वर्तमान से जोड़ती हूं,
हमारे दरकते रिश्ते को नए नजरिए से परखती हूं।
फितरत तो सदा से वही थी तुम्हारी,
हर गलत पर मौन साध लेने की, पर,
मेरे शब्द हर बार, उस मौन को भरते रहे,
जबकि, तुम केवल मेरी कमियों को गिनते रहे,
कभी मौन अधरों पर रखी मेरी सिसकियों की,
अनकही कहानी को पढ़ने की जहमत तो करते।
पर, कहते है न…फितरत, कभी नहीं बदलती,
तुम आज भी वही हो, एक मूक पाषाण खंड,
मेरा मुखर मौन तुम्हारे अहं की अग्नि को,
निरंतर प्रज्ज्वलित तो करता है, पर शायद
तुम्हारा खोखला दंभ और तथाकथित पुरूषत्व
हार जाता है मेरे मर्यादित और संयमित स्त्रीत्व से।