फिक्र (एक सवाल)
रहता है जहन मे एक सवाल कि कल क्या होगा।
हो गई है आज तो सुबह से शाम पर कल क्या होगा।।
लिखती है रोज इक इबारत पलटता रोज एक पन्ना।
लेखनी है जिसकी उसे है पता की कल क्या होगा।।
फिक्र क्या कि मिलती हैं जिन्हे दो जून की रोटियां।
मुश्किल से सुलगा है आज चूल्हा पर कल क्या होगा।।
भरी हैं तिज़ोरियां जिनकी उन्हें क्या पता गरीबी का।
मजूरी लेके आ गया है वो आज तो पर कल क्या होगा।।
उन्हें क्या अहसास की खेलते हैं छतों पर बच्चे जिनके।
टूटी है छप्पर झोपड़ी की गर हुई बरसात तो क्या होगा।।
रोजी रोटी की तलास से लौटा है फिर एक आदमी।
निकलेगा उम्मीद लेकर दिल में पर कल क्या होगा।।
महफूज हैं बेटियां अभी तक तो घरों में अपने।
जायेंगी जब बाहर घर से बेटियां तब क्या होगा।।
फिक्र से क्या हासिल पर लाज़िमी है फिकर करना।
हाथ की लकीरों में कहां लिखा है की कल क्या होगा।।
उमेश मेहरा
गाडरवारा (एम पी)