* फागुन की मस्ती *
** गीतिका **
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सभी दिशाओं में रंगों को, बिखरा जाती होली।
फागुन की मस्ती को लेकर, जब भी आती होली।
खूब बहाते हैं रंगों को, घोल घोल पानी में।
दृश्य देखते मस्ती के सब, जब नहलाती होली।
खाने और खिलाने के क्रम, अविरल चलते रहते।
भांति भांति के पकवानों बिन, कब हो पाती होली।
रंग स्नेह के होते गहरे, कभी नहीं मिट पाते।
बिना रुके सबको आपस में, खूब मिलाती होली।
फागुन में मन उड़ उड़ जाए, तोड़े हर बंधन को।
यौवन के बहके कदमों में, जब इठलाती होली।
क्यों बैठे हो घर में भाई, निकलो घर से बाहर।
गली-मुहल्ले चौराहे पर, धूम मचाती होली।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य