फ़ितरत
शीर्षक- फ़ितरत
फ़ितरत इंसान की अब रोज़ ही बदल रही।
रेत सी ये जिंदगी हर घड़ी फिसल रही ।।
हज़ारों मायूसियों के बीच दिल तन्हा रहा,
जिंदगी की शाम भी बेबसी में ढल रही।।
तेज़ है हवा घनी बुझने को चिराग़ हैं
टूटे हुए दिल में कोई आस अभी पल रही।
तपती हुई रेत पर चलते चलते थक गए
ख्वाहिशों के साथ-साथ हर खुशी भी जल रही।
रूह जैसे मर गई है जिस्म साँस ले रहा
साँस -साँस पर कोई आह सी निकल रही।
जबसे आस्तीनों के साँप पाल लिए हमने,
जिंदगी जफ़ाएँ दे दे के हमें छल रही।
सुनते हैं दुआओं में होती है बड़ी ताकत
जाने क्यों मुसीबतों की घड़ी नहीं टल रही।
प्रीति चौधरी”मनोरमा”
जनपद बुलंदशहर
उत्तरप्रदेश
मौलिक एवं अप्रकाशित।