फ़ासले ही फ़ासले हैं, मुझसे भी मेरे
निकल तो आया हूँ दूर, तलाश में अपनी,
किसी को छोड़ आया, किसी से मिल नहीं पाया।
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फ़ासले ही फ़ासले हैं, मुझसे भी मेरे,
गैरों को समझा, ख़ुद को समझ नहीं पाया।
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मरज़ पकड़ में आ गया, वक़्त रहते मगर,
हक़ीम वक़्त पर, माक़ूल मिल नहीं पाया।
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जा रहे हो महफ़िल से, तो मर्ज़ी तुम्हारी,
जलसा तुम्हारे बिना, कभी जम नहीं पाया।
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पलटते, गिनते रहता हूँ, दस्तावेज़ हजारों,
अंज़ाम तक उम्रभर, लेकिन गिन नहीं पाया।