फ़ना
ताउम्र जिंदगी के नफ़्स से
अनजान रहा ये मुसाफ़िर
क़िस्से कई हैं ऐसे
क़तरा क़तरा कटती है
ये जिंदगी यूँ ही
नुक्ता ख़लिश के अज़ाब का
समझते तो आक़िल भी नहीं
नाशिनास ना समझ बैठे ज़माना
वो बस ग़मज़दा हो कर
यादों की सिर्फ आह भरते हैं .
क़तरा क़तरा कटती है
ये जिंदगी यूँ ही –
वो आहें – वो यादें
फ़ना होती नहीं कभी.
कभी दीवान की शक़्ल में
तो कभी शायरी बन कर
कभी क़ब्र पर लिखे
चंद अलफ़ाज़ बन कर .
अतुल “कृष्ण”.
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नफ़्स = सार,आत्मा
ज़ेहन = समझ
नाशिनास= नासमझ, अज्ञानी
अज़ाब = दर्द
नुक्ता= गूढ़ता,
ख़लिश= चुभन , दर्द
आक़िल= बुद्धिमान
ग़मज़दा = दुखी
फ़ना = पूर्ण विनाश, समाप्त
दीवान = – शायरी की किताब