*** फर्क दिलों-जिस्म में हो ना ***
फ़िजा में आज घुली है
जमाने-भर की आबे-बू
कुछ क्षण गुस्ल कर लूं
प्यार की बारिश में यूं
खुदा की खुदाई आये
मेरे आँचल में चुपके से
मुझे ना ग़म हो किस्मत
मेरे आँचल से रुखसत
बस इक दर्द छाया है
मेरे नाजुक जीवन पर
काश नफ़रत को मिटा पाता
अपने मिटने से पहले मै
क्या करूं अब वो पहले सी
बारिश भी तो नहीं होती
जमी हो गर्द दिलों पर यूं
जो अपने आप साफ होती
न किसी को माफ़ करने की
कभी नौबत ना आती थी
वो अल्लाह की दौलत थी
वो ईश्वर का खज़ाना था
कभी ना खत्म होती थी
वो महोब्बत का खज़ाना था
मगर कहते नही बनता
वो महोब्बत का फ़साना था
कर हासिल उस मंजिल को
अब भी तराना प्यार बाकी है
जिस्म तो रोज धुलते है
दिलों का धुलना बाकी है
गुस्ल कर इस क़दर अपने को
फर्क दिलों-जिस्म में हो ना बाकी ।।
. मधुप बैरागी