प्लास्टिक की गुड़िया!
प्लास्टिक की गुड़िया सी
बेजान चुप चाप
एकदम शांत
हिलाने डुलाने पे
उठाने पे
आँखें खोलती
आवाज़ निकालती
बिना सोचे समझे
एकदम बेमन
हंस देती
किसी को देख
बड़ी बड़ी आँखों से
हंस देती
ऐसी हंसी जो
चेहरे पे तन जाती
फिर प्लास्टिक बन जाती।
एहसास समझने को
वक्त कहाँ
दर्द महसूस करने को
जज़्बात कहाँ
हंसी मन में जाने को
ख़ुशी कहाँ
निर्जीव तन
निर्जीव मन
आत्मा तक
निर्जीव बन चुका
अनुभूति विहीन
स्पर्श विहीन
टूट रही अंदर से
प्लास्टिक की गुड़िया सी।