“प्रोन्नति”
“प्रोन्नति”
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पढ़े लिखे हो या, हो कोई अनपढ़;
पहले तो, नौकरी लेने को होते तत्पर,
ज्यों ही मिलती उन्हें, कोई नौकरी;
‘प्रोन्नति’ पाने को, वो करे तब धरफर।
एक तरफ हैं, लाखों ‘बेरोजगार’;
सबको होती, नौकरी की दरकार;
मगर हाथ पे हाथ धरी, बैठी सरकार;
सबको नौकरी देने से, करे इन्कार।
फिर देखो, जिसमें है कोई ढंग नही;
कैसे भी नौकरी पाये, बेढंग वही;
अब बेढंगी की हो जब, थोड़ी उन्नति;
वो सबसे पहले खोजें अपना ‘प्रोन्नति’।
देखो योग्य भटके, प्रायः दर-दर;
और, अयोग्य मांगे पहले नौकरी,
धोखे से उसे,मिल भी जाए अगर;
फिर चले वो अब ‘प्रोन्नति’ की डगर।
जैसे ही कभी, बदले कोई सरकार;
चापलूस लगा ही ले, अपनी जुगार;
फिर जल्द ही, पाने लगे वो पगार,
अब चाहिए उसे ‘प्रोन्नति’ की पुरस्कार।
प्रोन्नति पाकर, अब वो जन इठलाये;
सब पर अपना, खूब रोब जमाए;
चाहे उसे कुछ आये या ना ही आये;
अब वो हर दिन, अपना ही गुण गाये।
जुगारी मुखोँ की जरा, देखो शान;
जैसे ही पूरे होते,उनके सब अरमान;
फिर जारी करते वो, यही फरमान;
पढ़े लिखों की ही, अब खीचों कान।
कोई नौकरी पाये, भले गुजारिश में;
या मिले उसे, धन और सिफारिश में;
चाहे मिले, अपने ‘पप्पा’ के वारिस में;
मगर प्रोन्नति चाहिए,उनको लावारिस में।
देखो जरा, अब वो भी चाहे प्रोन्नति;
भले उसमें, बुद्धि-ज्ञान की हो अवनति;
चाहे क्षमता हो न, उसमे तनिक भी;
यही है, आज इस देश की नियति।
प्रोन्नति की मांगे होती, अब हर रोज;
बिन मेहनत के ही, सब चाहे अब मौज;
आए थे सब जो भी, यहां ‘गंगू’ बन;
बनना चाहे अब, वो भी “राजा भोज”।
स्वरचित सह मौलिक
…. ✍️पंकज “कर्ण”
…………कटिहार।।