प्रेम..
प्रेम महज
एक व्यक्ति से ना होकर
सम्बंधित है पूरी क़ायनात से ….
तुम्हारे साथ ना रहने पर भी
मैंने तुम से इश्क़ जारी रखा.
तमाम छोटी छोटी चीज
जो जुड़ी थीं तुमसे
उनसे प्रेम करता ही रहा मैं,
वज़ह यही कि बस जब …
एक बार प्रेम हो जाता है
मन मानस का,
ख़ालीपन खुद भर जाता है ..
जिससे आप प्रेम करते हैं
उससे नफरत नहीं कर सकते …..
किसी के रहने ना रहने से
न प्रेम का रूप बदलता है
ना स्वभाव,
बस एक बिम्ब होता है
जो नहीं दिखता
प्रेमी हम तब भी बने रहते हैं ….
प्रेम…..
ईश्वर और साधक जैसा है …
मूर्ति ना रहने पर भी
साधना खत्म नहीं होती
मालूम है,
ईश्वर तो मन में है …
मूर्तियों में नहीं
उसी तरह प्रेम अंतर्मन में है
प्रेमी की उपस्थिति में नहीं ….
तुम से है.
तुम्हारी उपस्थिति से नहीं
यही प्रेम का
शाश्वत होना है, सम्पूर्णता भी
हिमांशु Kulshreshtha