*प्रेम*
मेरे प्रेम के विस्तार को,
अरे तुम क्या समझोगे।
तुम्हारा प्रेम है सीमित,
तुम्हारी ही तरह।
मेरे मौन में भी उद्गम,
है गंगा की धार।
तुम्हारे शब्द में भी,
है समंदर का खार।
मैं रहूं या न रहूं, मेरी लेखनी,
जो लिख जाएगी पन्नों पर।
मेरे जाने से पहले तेरे मिलन,
और मेरे विरह के एहसास।
©डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”