प्रेम
तुम्हारा जीवंत प्रेम
रेल की पटरियों से दौड़ता हुआ
बादलों के गुच्छों से
लिपट जाता है।
शब्दों के मकड़जाल में
नहीं उलझता।
न किचकिच करता है
भावनाओं से!
न हठधर्मी करके
देह को उकसाता है।
तुम्हारा वैचारिक प्रेम
जीवन के पार्थिव सपनों को
संवेदना देता है..
पुचकारता है।
तनिक धीरे से
यथार्थ की प्रस्फुटित सांसों में
बहने देता है..
अपनेपन के मलय को,
लगातार!
तुम्हारा प्रेम!
बचाता रहता है..
कल्पनाओं की मधुर रागनियों को,
अवगुंठित अनहोनी से!
और फिर..
विलग करता जाता है
अनुभवों की दूब से
पीड़ा की तरल बूॅंदों को
हर बार!
रश्मि लहर