प्रेम में सफलता और विफलता (Success and Failure in Love)
‘सफल सांसारिक प्रेम’ नाम का अस्तित्व में कुछ भी नहीं होता है!
यह एक कोरा भ्रम है!
प्रेम और सफल हो जाये, यह तो हो ही नहीं सकता!यह नहीं हो सकता!
दुनिया की कोई भी ताकत इसे संभव नहीं कर सकती है!
लेकिन प्रेमी हैं कि इसे सफल करने में अपनी जिंदगी गंवा देते हैं!
यह प्रेमियों की सबसे बड़ी मूढताओं में से एक है!
प्रेम और सफलता?
ये दोनों शब्द ही परस्पर विरोधाभासी हैं!
इन शब्दों में परस्पर कोई तालमेल नहीं है!
प्रेम की शुरुआत भी विफलता, प्रेम का मध्य भी विफलता तथा प्रेम का अंत भी विफलता!
यही प्रेम का सच है!
जितना जल्दी प्रेम का यह सच समझ में आ जायेगा, उतना ही प्रेम करने वालों के लिये शुभ रहेगा!
बाहरी प्रेम में कोई स्थायित्व नहीं होता है!
स्थायित्व तो मुर्दा वस्तुओं में ही हो सकता है!
कुर्सी, मेज, चारपाई आदि जैसे दस दिन पहले थे, वैसे ही आज भी मौजूद हैं!
मूर्दा, बेजान, जड और नीरस से!
प्रेम तो उत्सव है!
प्रेम तो उल्लास है!
प्रेम तो पर्व है!
प्रेम तो आनंद की अभिव्यक्ति है!
बाहरी प्रेम कभी सफल नहीं होता है तथा अंतस का प्रेम कभी विफल नहीं होता है!
प्रेमी और प्रेमिका परस्पर बेजान वस्तुओं की तरह व्यवहार करते हैं और फिर चाहते हैं कि उनका प्रेम कभी मरे नहीं!
यह नहीं हो सकता है!
ऐसा प्रेम एक दिन उदासी, विफलता, हताशा, अकेलापन तथा तनाव लेकर अवश्य आयेगा!
ऐसे प्रेमी और प्रेमिकाओं की शुरुआत ही गलत है!
गलत शुरुआत कभी भी सफलता में समाप्त नहीं हो सकती है!
लेकिन फिर भी लोग अंधाधुंध लगे हुये हैं!
इसीलिये सभी प्रेमी और प्रेमिकाओं को रोते- बिलखते- शिकायतें करते हुये पाओगे!
सांसारिक प्रेम में धोखे मिलना निश्चित है!
आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, परसों नहीं तो नरसों!
वैसे भी वासना प्रेम नहीं है!
वासना तो सतही होती है! वासना तो विषयपरक होती है!
वासना तो किसी के प्रति होती है!
वासना तो ऊर्जा का बहिर्गमन होती है!
वासना तो भोग प्रधान होता है!
जबकि प्रेम विषयपरक नहीं अपितु विषयीपरक होता है!
प्रेम तो बस होता है!
बिना किसी आकांक्षा के, आशा के, चाहत के और बिना किसी वासना के!
प्रेम तो सुगंध की तरह है! प्रेम तो चंद्रमा की किरणों की तरह है!
प्रेम तो बहती हुई हवा की तरह है!
प्रेम तो भास्कर प्रकाश की तरह है!
प्रेम तो बहती नदी की तरह है!
प्रेम तो एक सहजता है!
प्रेम तो ‘स्व -भाव’ में ठहर जाना है!
प्रेम तो हमारा आत्मा का आचरण है!
प्रेम तो चैतन्य है!
प्रेम पर अमीर,गरीब, धन, दौलत, सुविधा, असुविधा, लाभ, हानि, स्वार्थपूर्ति, श्वेत, अश्वेत, भारतीय, युरोपीय आदि के होने या नहीं होने से कोई फर्क नहीं पडता है!
जो पल -प्रतिपल सदैव वर्तमान में संभव है, वह तो सदैव ताजा होता है!
सजीव गुलाब के फूल की ताजगी पल- प्रतिपल होती है!
गुलाब उत्पन्न होता है, कुछ दिन सुगंध देता है और मर जाता है!
लेकिन प्लास्टिक के फूल सदैव ताजगी का भ्रम उत्पन्न करते हैं क्योंकि वो मृत हैं!
क्योंकि वो मृण्मय हैं!
बाहरी स्थायित्व की आस केवल मुर्दा वस्तुओं से हो सकती है, सजीव से नहीं, जीवंत से नहीं!
प्रेमी – प्रेमिका सोचते हैं कि बस हमारी प्रेमिका या हमारा प्रेमी बस हमारा ही है!
एकाधिकार, गुलामी और मै- मेरा -मेरी में पडकर प्रेम अपनी ताजगी खोकर मृत हो जाता है!
प्रेम तो निज स्वभाव है!
प्रेम तो बस होना है!
प्रेम तो बस साक्षी है!
प्रेम तो बस अस्तित्व के साथ रहना है!
प्रेम तो बस आनंद है!
प्रेम बस होने में होना है!
प्रेम में कोई शिकायत नहीं होती है!
प्रेम में भूतकाल,भविष्यकाल नहीं होते हैं!
प्रेम तो बस अभी, इसी क्षण और यही होता है!
वास्तव में प्रेम समयावधि की अपेक्षा रखता ही नहीं है!
प्रेम समयातीत है!
समय में होते ही आकांक्षा, आशा, चाहत, सफलता, विफलता, सुख, दुख आदि आने लगते हैं!
प्रेम को खंड -खंड करके उसे विषाक्त कर देना है!
ऐसे में प्रेम प्रेम न रहकर वासना बन जाता है!
वासना अस्थायी होती है!
वासना जन्मती, मौजूद रहती और मरती है!
प्रेम तो शाश्वत है!
प्रेम तो अखंडित है!
प्रेम तो चिन्मय है!
समकालीन दार्शनिक और रहस्य ऋषि आचार्य रजनीश ने इस विषय प्रेम और वासना को सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ ढंग से व्याख्या दी है!
लेकिन ‘अंधेर नगरी, चौपट राजा’ के आधुनिक एकतरफा उपयोगितावादी युग में उनको गलत ही समझा गया है!
वासना और राजनीति में आसक्त सारे नकली प्रेमी, धर्माचार्य और नेता हाथ धोकर उनके पीछे पड गये!
संसार का हरेक व्यक्ति खुद को किसी न किसी का सच्चा प्रेमी,भक्त और निष्ठावान सिद्ध करने में लगा हुआ है!
लेकिन फिर भी सबको सबसे यही शिकायत है कि मेरे साथ धोखा हुआ है!
सोचने की बात यह है कि जब सब सबके प्रति प्रेमपूर्ण हैं तो फिर धोखा और विश्वासघात कहाँ से आ गये हैं?
हकीकत यह नहीं है!
हकीकत तो यह है कि सबका प्रेम मांग पर आधारित है!
कोई किसी से प्रेम नहीं कर रहा है!
अपितु सब एक दूसरे से प्रेम मांग रहे हैं!
सब प्रेम करने का ढोंग कर रहे हैं!
सब सबके सामने प्रेम पाने की चाहत में झोली फैलाये खड़े हैं!
यदि वास्तव में ही लोग परस्पर प्रेम करते तो यह धरती स्वर्ग बन गयी होती!
समस्त धरती आज आनंद से सराबोर हो गयी होती!
लेकिन धरती पर तो सर्वत्र आतंकवाद, उग्रवाद और युद्धों का बोलबाला है!
वासना, कामुकता और आसक्ति मन सहित इंद्रियों के माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं!
इनके द्वारा प्राप्त सुख या तृप्ति अस्थायी होते हैं!
इनमें स्थायित्व की खोज करना विफलता को आमंत्रित करना है!
इस वासना,कामुकता और आसक्ति को प्रेम कहना गलत है!
प्रेम तो आत्मा की खुशबू है!
प्रेम तो चैतन्य का आलोक है!
प्रेम तो स्वयं के पास आना है!
प्रेम तो आत्मस्थिति है!
प्रेम तो बस होता है!
प्रेम विषयासक्त न होकर सर्व -विषयों से विमुक्ति होकर स्व -साक्षात्कार है!
इंद्रियासक्त और विषयासक्त सांसारिक लोग ऐसा ही प्रेम करते हैं!
इस प्रेम का विफल होना निश्चित है!
इस प्रेम में दूरी बनी रहती है!
यह दूरी ही एक दिन विफलता में परिवर्तित हो जाती है!
स्थूल इंद्रियां सत्य,शाश्वत, सनातन, दिव्य प्रेम को अनुभूत करने में असमर्थ हैं!
सांसारिक प्रेमी इंद्रियों से परे जाने की सोच भी नहीं सकते हैं!
ये तो बाहरी रंग, रुप, आकार, प्रकार, गोलाई, बनावट, हुस्न,चितवन पर आधारित होते हैं!
इस तरह के सांसारिक प्रेम में विफलता मिलना निश्चित है!
आजकल के प्रेमी और प्रेमिका अपनी -अपनी मांगों खालीपन और वासना को लिये एक दूसरे के सामने खड़े रहते हैं!
लेकिन ध्यान रहे कि प्रेमी और प्रेमिकाओं के भीतर के खालीपन को कोई भी बाहरी प्रेम या आकर्षण भर नहीं सकता है!
प्रेम करते हुये प्रेमियों की मानसिकता परस्पर एक दूसरे को गुलाम बनाये रखने की होती है!
लेकिन सत्य प्रेम तो स्वतंत्र है!
सत्य प्रेम स्वतंत्रता देता है, गुलामी नहीं!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र- विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119