प्रेम भरी नफरत
प्रेम भरी नफरत
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रचनाकार,, डॉ विजय कुमार कन्नौजे छत्तीसगढ़ रायपुर दिनांक,,19/12/2023
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लुटी हुई गीदड़ से हिरनी
अब हिरन का हो सकता नहीं।
गिरे हुए पेड़ों से पत्ते पुनः
डाली पे कभी लग सकता नहीं।।
नहीं चाहता तुम्हें देखना
अब नजर सामने क्यों आईं है।
जल अंदर का पत्थर है तू
तुझमें लगी काई रूपी बेवफाई है।।
चुनी हुई किसी माली की,
जिसने परागकण को बिखराया है।
क्यों आये मेरे नजर सामने
क्या दिल पे आग लगाने को आई है।।
मर जाता हूं तो मरने दें,
क्यों तड़फन देखने को आई है।
दया नाम के जहर को
क्या मूझे पिलाने को आई है।।
सुन जरा कान खोलकर सुन
दुर हट जा अब, नजर क्यों मिलाईं है।
अरी ओ मैम साहब देवी जी,
नैन समीप से ओझल हो,अब तू पराई है।।
तड़फ रहा हूं तड़फने दें,
मरता हूं मरने दें, क्या मौत देखने आई है।
जलता हूं तो मुझे जलनें दे,,
आग लगाने आई हे या दाग देने आई है।।
तुझे समझ लिया हूं,पढ़ लिया हूं,
तुझमें भी नरमाई है,शरमाई है,
पर जा देवी अब,, क्योंकि तू पराई है।।
लगा है तो लगने दे
,मिट जायेगा दाग।
एक दिन सबको होना ,
इस धरती पर राख।।
दौड़ धुप ,खेल कुद
ये जीवन का कसरत है।
दिल से अब भी तू मेरी है,
पर तन से तेरा नफरत है
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