प्रेम प्रतिमा
मैं बुत बनी यशोधरा
आज बुद्ध बन बैठी हूँ,
दुःख से भारी हुई पलकों पर
सुकून का एहसास है,
मानों जीवन की कठिन राह से
निजात पा, क्षणिक नहीं
चिर आनंद का आभास है,
इस रंगी काया, दिव्य स्वरूप में
अंतःकरण से अनुरंजित मन में,
तराशी प्रेम प्रतिमा हूँ…
बुत बनी हूँ आज,
मत जगाओ मुझे
यादों में हूँ,
मत उठाओ मुझे
कल्पनाओं में हूँ,
यही कुछ पल हैं
जी लेने दो
मैं आज में नहीं
अपने बीते कल में हूँ…
आज प्रेम चढ़ा है परवान
हे बुद्ध ! सिर्फ तुमने ही नहीं
मैंने भी पा लिया ज्ञान,
तुमने त्याग चुना
मैंने समर्पण,
तुमने निर्वाण चुना
मैंने चिर वियोग,
तुम सिद्धार्थ से बुद्ध बने
मैंने प्रेम प्रणयन किया…
मैं विरह में लिपटी
प्रेम प्रतिमा,
आज सर उठाकर कह सकती हूँ
तुमने तपस्या से सत्य को पाया है
मैंने प्रेम से सत्य को पाया है।
हाँ, मैंने प्रेम से सत्य को पाया है।।
रचयिता–
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’