प्रेम पथिक
वह प्रेम पथिक कहलाता है …
जो चुप चुप आँसू पी -पी कर ,
संताप विरह का सह जाता।
अपने प्रियतम के तन मन की
जो बिन लब खोले कह जाता।
प्रीत रीत का लेकर इकतारा
जो जीवन के राग सुनाता है ।
बंजर मन के मैदानों में
बन प्रणय सरिता बह जाता है ।।
वह प्रेम पथिक कहलाता है …..
प्रेम समर्पण का करने में
जो तनिक नहीं है घबराता ।
जिसके उर अंतस में केवल
निश्छल प्रेम सलिल है लहराता ।
मार्त्तण्ड ताप में तपकर जो
बादल बनकर गहराता है ।।
वह प्रेम पथिक कहलाता है …
अपने उर के मदिरालय से
जो छल -छल हाला है लाता ।
धर अधराधर फिर मदिर -मदिर
जो अमृत का पान कराता ।
प्रेम के रस की बूँद बूँद से
जो मन अंतर नहलाता है ।।
वह प्रेम पथिक कहलाता है …
वह प्रेम पथिक कहलाता है ।।
© मनोज कुमार सामरिया ‘मनु’
शिक्षक , स्वतंत्र लेखक
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मुरलीपुरा , जयपुर ,राजस्थान
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