प्रेम क्या है?
#प्रेम पर नई कविता लेकिन अभी अधूरी है आप पढ़िए और कहिए तो पूरा करने का प्रयास करूं।❤️
प्रेम में अमृत समाहित है सुखद मकरंद भी।
प्रेम से ही भाष मन का प्रेम से ही छंद भी।
प्रेम है योगों से बढ़कर प्रेम से सृष्टि सकल।
प्रेम सीमाओं से ऊपर प्रेम से ईश गंध भी।
प्रेम से उन्मुक्त भावों को मिला श्रृंगार भी।
प्रेम से फलती बहारें और यह संसार भी।
प्रेम पाना है सरल बस चाहिए निश्छल हृदय।
प्रेम में हारो स्वयं को है तभी निश्चित विजय।
प्रेम में मधुमास खोजो ये सकल उन्माद है।
हो रही मादक नयन या सजल अवसाद है।
देह से स्पर्श दैहिक है विकट अक्रांता ।
प्रेम तो बस आत्मिक गान को है मानता।
मैं कथानक भाव को मधुमास लिख देता मगर
मैं नयन को यवनिका नव भाष लिख देता मगर
प्रेम है मन में समाहित तो लिखा बलिदान हूं।
पुण्य पथ पर जो चले उनको कहा भगवान हूं।
प्रेम है माटी से मुझको तो लिखा नव भाष मैं।
प्रेम जिनको है वतन से कह रहा हूं खास मैं।
प्रेम से तेजों का सृजन सूर्य का है ताप भी।
प्रेम से सृष्टि खिली है प्रेम से हो आप भी।
प्रेम के अवधारणा को दे रहा आकार हूं।
प्रेम को मैं ओज कह कर कर रहा हुंकार हूं।
देखिए सिरोरैखीय ओज नेत्रों में समाहित ।
आंसुओं को गंग कहता प्रेम का आधार हूं।
©® पूर्ण अधिकार सुरक्षित मौलिक स्वरचित ।
दीपक झा “रुद्रा”