प्रेम के फूल
प्रेम के फूल खिलते रहे मुरझाते रहे
मगर ज्यों के त्यों नफ़रत के काँटे रहे
ईर्ष्या फिर भी न गयी मेरे मन से कभी
लाख हम अपने मन को समझाते रहे
उनको लगा कि हमें कोई दुःख ही नहीं
हम जो हर हाल में यूँही मुस्कुराते रहे
नदी की गहराई उसमें उतरके पता चलती है
तुम तो किनारे से ही अनुमान लगाते रहे