प्रेम की राह पर-59
शरीर क्लान्त होने की आहटें देना शुरू कर देता है जब अनवरत कार्य करते हुए इसे सुखभरा विश्राम न दिया जाए।विश्राम से व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है।उसके विचारों की बगिया पुनः एक नई शक्ति के साथ आनन्द की वायु से लहलहा उठती है।किञ्चित भी भय का उदय न होगा।यदि किसी से शत्रुता को न पाला हो।यदि वास्तविक पुरुषार्थी हैं तो आप निश्चित ही किसी से बैर न पालेंगे।यदि पाल लेते हैं तो आपको कभी एक शानदार नींद का प्रयास नहीं करना चाहिए।सच्चा उद्यम मानवीय भलाई को लेकर हो तो अतिउत्तम।अन्यथा आप कोरे साधक हो जो अपने अन्तःकरण को पंक से भर रहा है।क्या आप असत्य का प्रतीक बनना पसन्द करेंगे ?क्या सत्य को एकमात्र दिखावे के रूप में स्वीकार करेंगे?क्या आप अपनी बुद्धि को निर्लज्जता से भरे कार्यों की बलिबेदी पर चढ़ाकर जनमानस में संवाद की विमुखता स्वयं के प्रति उत्पन्न कराना चाहते हो?यदि हाँ तो निश्चित समझिए कि आप संवाद के साथ-साथ अंगार के पौधे भी बो रहें हैं।जो निश्चित ही शत्रुता से फलित होंगे।उन कड़ियों को सदैव जोड़ते रहें जो निश्चित ही उस पथ पर आपको ले जाने का प्रयास करती हैं जो जहाँ विषमताओं का अभाव स्वतः क्षीण होता जाता है।यह संसार यज्ञमय है।हर कोई लघु रूप और दीर्घ रूप में भी यज्ञ में व्यस्त है।निरर्थकता किसी व्यक्ति के हिस्से में तब अधिक जुड़ जाती है जब उसका हर कार्य शुद्ध आचरण की पटरी से उतरा हुआ हो।वह भले ही अपनी कार्यविधा को सुष्ठु माने उसे तदा प्रसन्नता मिले परं उसे पश्चात पतन के भयावह अन्धड़ से गुजरना पड़ेगा।किसी व्यक्ति को नितान्त कमजोर मानकर आप किस दशा और दिशा को जन्म दे रहें हैं यह समय के गर्भ में छिपा हुआ है कि आप पर भी जब उसका प्रयोग किसी माध्यम से होगा तो अन्तर्ध्यान हो जाओगे क्या?सब बराबर हो जाएगा।जो तुम्हारे भाग का था और है तुम्हें मिलेगा और जो नहीं मिलेगा उसे तुम स्वआँकलन करके कोसोगे।तो हे लूलू!तुम ऐसे ही स्वयं आँकलन करके अपनी इस विषय में अपनी भद्द पिटवाओ।तुम अज्ञान के अन्धकार में इस तरह डूबी हुई हो जहाँ प्रकाश की नगण्य सम्भावना है।कोई न करेगा तुम्हारे जीवन में तिमिर का नाश।बजता हुआ ढ़ोल एक सीमा में ही अच्छा लगता है।नहीं तो फालतू का शोर ही देगा।एतादृश मनुष्य के जीवन में ऐसे कितने ही ढ़ोल विविध प्रकार के बजते रहते हैं।उन्हें किस विभाग में रखोगे।किस विभाग से विभाजित करोगे।यह सब आपकी सरलता और कठिनता पर निर्भर करता है।रचना धर्मिता किसी व्यक्ति का आन्तरिक गुण है।फिर वह उसे कैसे निष्पादित करता है।यह उसका आन्तरिक गुण है।अपने आचरण को बदलना अर्थात नाखून से हीरे को कुरेदना।झूठा होना कहाँ तक उचित है।नैतिक मार्गदर्शन के ख़्यालात को उड़ेलने में समाज में कई लोग इस तरह तैयार रहते हैं कि कुछ पूछो मत।जैसे वहीं हो नैतिकता के अवतार।परन्तु जब उन्हें जीवन में प्रयोग किया जाता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि नैतिकता कराह रही है और अपनी उस कराहपन में अपना सब कुछ शब्दश: बयान कर देती है।मंथर गति से चलता हुआ गज बड़ा शान्त प्रतीत होता है।यदि वही बिगड़ जाए तो त्राहि त्राहि हो जाती है।परन्तु हे रूपा!तुम न चल सकोगी मंथर गति से।अन्य जन की भावनाओं से खेलकर कहीं छिप जाना यह तुम्हारी ही कमजोरी का प्रदर्शन है और न न ज़्यादा सुन्दर जो हो।तो तुम्हारी सुन्दरता में, तुम्हारे आँखे चार बनकर ही,संसार को देख रहीं हैं।आँख तो मोटी मोटी और भैंस की फिट कर दी हैं।और हाँ हाँ।सिर के बाल तो घोड़ी की गर्दन के बाल हैं।जो लगवा लिए।ऊपर से और कर लिया है लाल रंग रोगन।उड़ते हुए बालों का चन्द्रमा दिखने लगा है।झुर्रियां धीरे धीरे अभिवादन कर रहीं हैं।कहती हैं हे रूपा यही है इस नश्वर जीवन का सत्य।अपनी आत्मा को साफ न कर सकी।खा खा के इंद्रप्रस्थ में मार्जरी के गुण आ गए।तो खोंसोगी तो है ही।यह शरीर पानी की बुदबुदे की तरह नष्ट हो जाएगा।रह जाएंगे तुम्हारे कर्म।जिन्हें आँक लो कि कितने महान कर्मों के प्रणेता हो।तुम्हारे कर्म प्रकट हो तुमसे कहेंगे कि हे गुलाबो!हम तुम्हारी पीठ भी न थपथपायेगें।तुमने एक कृत्य ऐसा किया कि जिससे सभी कर्म उलट गए।तुम खोजती रहीं एक सहृदय मानव की पावन कुटिया में वासना को।वह वासना उस सज्जन में तो थी नहीं पर तुम्हारे अन्दर उछल कूँद करती रही।वासना न स्पर्श कर सकेगी उस सज्जन को।पर याद रखना तुम निरन्तर मुझ स्वयं को अपनी परीक्षा में खोजती रहीं तो बताओ तुम्हें कौन-कौन से अवगुण दृश्य हुए।बताओ।न न बताओ।कोटेक महिन्द्रा के मैसेज ऐसे ही भेजते रहना और गेम वाले भी।मजा आता है क्या।ज़्यादा परेशान करने में।तो हे काँव काँव।ईश्वर तुम्हारी काँव काँव को कूँ कूँ में बदल दे।तुम बहते रहो निर्झर निर्झर झरने की तरह।तुम्हारे लिए बुढ़ापा आदि शब्दों का प्रयोग मात्र तुम्हें कुरेदने के लिए हैं।तुम अभी भी अपने फोन का प्रयोग कर सकते हो।मेरे मूर्ख लिख देने से कोई मूर्ख न होगा और कुछ लोगों को चिढ़ाना भी तो है।तो हे लो-लो तुम चतुर हो।चतुर शिरोमणि हो।चतुराई का पान चबाती हो।चतुराई का वस्त्र पहनती हो।लम्बी हो जाएगी चतुराई की कहानी।हे रूपा!तुम चतुर हो।तुम्हारे सन्देश की प्रतीक्षा में यह भी महाचतुर है।💐💐💐💐(तो हे जस्टिन तुम्हारे पढ़ने भर से कुछ न होगा)
लिखावट फिर चालू हो गई है😊😊
©अभिषेक पाराशर