प्रेम की राह पर-5
लाल सिंह-(द्विवेदीजी की लाली से)ख़ैर,तुम्हारा ज्ञान आगरा के श्री राम कचौड़ी वाले की कचौड़ी जैसा है, जो झण्ड उड़ाते हुए घासलेट में सिकती है, परन्तु यह देखकर भी भूख तेज़ होने के कारण झंडरूपी आलू के झोल में तीखी हरि मिर्च की चटनी के साथ फूफूफूसीसीसी ओह बड़ी मिर्च है, के झण्डदार उद्घोष के साथ सेवन करना पड़ता है।तुम्हारे ज्ञान की मेखला भी बड़ी ही क्षीण नज़र आती है।द्विवेदीजी की लाली-लाल सिंह, एक आध झण्डदार तथ्यों को प्रस्तुत करो,जो मेरे सजीव ज्ञान को निर्जीव करते हों। वैसे भी तुम्हारा कौन सा ज्ञान का समुन्दर है।यह भारतीय जुगाड़ जैसा है जो कभी रोड पर चलती है और कभी छिन्न-भिन्न होती सरकार को बनाने में। इस प्रकार बच जाती है सरकार की झण्ड ।परन्तु कभी कभी भारतीय डाक विभाग की चार्ज शीट जैसा है, जिसे अधिकारी अपने झंडरूपी द्वेष भरे इरादे के कारण देता है अपने कर्मचारी को और उड़ा देता है झण्ड,उस बेचारी की और उसकी महाझंड तो तब उड़ जाती है जब इंक्रीमेंट रुकता है तीन साल के लिए।तुम्हारे ज्ञान की प्रकृति इलेक्ट्रान जैसी द्वेती भी है।।
लाल सिंह-वाह,अहा,आज तो निर्मल सात्विक ज्ञान की गम्भीर झण्डदार धारा को प्रवाहित कर रही हो।बड़ी रासायनिक प्रकृति की बात कहकर झण्ड उतार रही हो।एक आध बात भौतिक शास्त्र की और उगल दो। तरंग सरंग। उत्तल अवतल लेंस जैसी। प्रकाश का व्यतिकरण करवा दो। डॉप्लर प्रभाव।आँ हाँ,बरनौली थेरम। विद्युत वाहक बल प्रस्तुत कर दो।घर्षण का उदाहरण दे दो। टाइट्रेसन करवा दो।बायोलॉजी में माइट्रोकॉनड्रिया की विशुद्ध व्याख्या प्रस्तुत कर दो।यें।क्या किसी की झंडरूपी रासायनिक भौतिक छाया पड़ गईल। टु डे।तत्काल भाषण बाजी में विधानात्मक झण्ड का झण्डा लगा दिया।तीन-चार पंक्तिओं में इतना रस भरा ज्ञान,इस झण्डरस का ज्ञान का आविर्भाव,प्राकट्य कहाँ से हुआ हे बन्जर भूमि की देवी।आज तो प्रकृति भी बहकी हुई सी नज़र आ रही है।क्या इस ज्ञान के निमित्त कोई बृहद अनुष्ठान का आयोजन किया था।तुम्हारे झण्डज्ञान के कौमार्य ने विदीर्ण कर दिया आज लाल सिंह का फौलाद जैसा हृदय।हे चार नेत्रोंवाली,चश्मा सहित,ही ही, महिला आज तो आप नारीसशक्तिकरण का अद्भुत अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत कर रही हो।इसमें कोई दोष है या गुण। आख्यान प्रस्तुत करेंगी क्या या फिर अपना वाला विमर्श।
द्विवेदीजी की लाली-इतना शाब्दिक महिमामण्डन लाल सिंह शब्द कहाँ से लाते हो लाल सिंह। लाल सिंह-याँ पे झण्ड का योगदान ना है, याँ बात ऐसी है कि,”ज्ञानरूपी चाकी पर बुद्धिरूपी डण्डे को लगाकर शब्द रूपी दाने को पीसते हुए शब्दकोश रूपी आटा तैयार होता है और उसमें निपुणता का प्रयोग करते हुए सिकतीं हैं साहित्य रूपी रोटियाँ और जब यह रोटियाँ शरीर को लगती हैं तो मनुष्य की वृत्ति हो जाती है साहित्यिक, इस साहित्यिक छाया की मोहिनी दृष्टि रखती है विश्व कल्याण की भावना”हे चतृस:लोचनी- तुम भी नीम हक़ीम वाले नुस्ख़े इस्तेमाल कर सकती हो” या फिर अपनी अम्मा बाबा से कहकर बनबा लो ऐसी साहित्य की रोटियाँ उगलने वाली चाकी धन्य कर लो अपना जीवन। द्विवेदीजी की लाली-क्या लाल सिंह………………..।
(अभी आद्यऐतिहासिक काल की हाजमोला बाकी है, क्या,झण्ड उड़ाने को??)
©अभिषेक पाराशर