प्रेम की राह पर-4
लाल सिंह-(द्विवेदीजी की लाली से)आद्यऐतिहासिक काल हड़प्पा की संस्कृति और वैदिक संस्कृति की गणना इस काल में की गई है, परन्तु इतिहासकारों की झण्ड तब उड़ जाती है जब इस काल की लिपियों को पढ़ने में सफलता नहीं मिलती है और उनका ज्ञान झण्ड शून्य हो जाता है।पर वह अभी भी माथा पच्ची कर रहें हैं, हाँ, उनको लगे भी रहना चाहिए क्योंकि जिन्दगी रुकने का नाम नहीं है।शायद उन्हें लिपि पढ़ने पर अलाउद्दीन के चिराग के फाटक की कुन्दी खोलने वाला कोई वैज्ञानिक यन्त्र मिल जाये जो जोड़ दे उन्हें मेसोपोटामिया की संस्कृति के किसी स्वर्णआवरित झण्डदार खजाने से।शायद वह भी घूम सकें बी एम डब्ल्यू में और पहन सकें रोलेक्स वाच।वैसे मुंशी जी भी अपने उपन्यासों में इस रोलेक्स वाच को लिखकर इसकी झण्ड उतार सकते थे पर उन्होंने मानवीय सामाजिक दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति को सुन्दरतम माना और उसे निकष बना डाला हिन्दी साहित्य के वर्तमान कुकुरमुत्तों के लिए।और उतार दी उनकी झण्ड। जैसे संस्कृत काव्य में हर कोई काव्य का महारथी वाल्मीकि,वेदव्यास,कालिदास,माघ नहीं नहीं बन सकता तो वर्तमान में रामचन्द्र शुक्ल,मैथिलीशरण गुप्त,मुंशी जी,हजारी प्रसाद द्विवेदीजी जैसा कलम कार भी नहीं बन सकता है।सुतरां यह सब महापुरुष होतें हैं जो हमारे और आपके ऊपर और साहित्य पर भी एहसान छोड़ने को जन्म लेते हैं और अपने साहित्यिक कर्म की गंगा बहाकर सबको उसमें डुबकी लगाने के लिए छोड़ जाते हैं।पर हम सब अपनी झण्ड में मशगूल हैं और अपने झण्ड रूपी कोरे ज्ञान में भी।हम क्यों लगाएंगे डुबकी,हम सब अपने साहित्यिक झण्ड के हिज़ाबाने में ताज़महल बना रहें हैं जिसमें शाहजहाँ उनका पार्कर पेन और मुमताज़ उनकी कविता है। इस ताज़महल को अपने ज्ञान रूपी लालकिले के हरेक रोशनदान से इतना निहारते हैं कि निहारते-निहारते उनको बगल में ही बाबा गूगल के आँगन पर उन्हें एक ऐसे ही महाताज़महल की बनावट मिल जाती है और उनकी उड़ जाती है झण्ड फिर वह अपनी झण्डीली चिन्तन को झण्ड रूपी नाखूनों से घायल कर लेतें हैं। ख़ैर छोड़ो,प्रसंग पर लौटते हैं,इतिहासकार खज़ाने का आनन्द तो ले लेंगे पर मोटा भाई की सरकार ड़ड़ड़ड़ …………उनकी उड़ा देगी झण्ड बहुत महीन।इस झण्ड प्रश्नावली को उनकी सात पुस्तें भी हल न करपायेंगीं और घुटवा लेंगी अपना सिर और बन जायेंगी बाबा। या फिर चलायेंगी बाबा का ढाबा दिल्ली वाला और उड़ाते रहेंगे झण्ड।द्विवेदीजी की लाली-तुम प्रसंग से बहुत भटकते हो।तुम जी टी रोड पर चलने की अपेक्षा गली मोहल्लों में अनावश्यक भ्रमण को जन्म देते हों।व्यर्थ ज्ञान न बांटों और झण्ड न उड़ाओ। लाल सिंह-वाह-वाह,क्या बात है, व्यर्थ झण्ड रूपी ज्ञान। तुमने अब तक किसी चुहिया को ज्ञान बांटा हैं।साहित्य-चित्त वृत्ति का प्रतिबिम्ब-यू ट्यूब-राम चन्द्र शुक्ल मैं नहीं मानती।अहा।हम्बे।शायद मुझे लगता है तुम डायनासोर की आखिरी प्रजाति थीं जो झण्ड उड़ाते समय विलुप्त हो गई, जिसने अब स्त्री रुप में तुम में ही जन्म ले लिया है और उसकी बुद्धि वैसी ही बनी हुई है झण्डदार।तुम तीक्ष्ण स्वाद रहित हरीमिर्च में मिली तीक्ष्ण स्वाद सहित तीखी मिर्च हो,जो मिर्च ने खाने वाले मानुष के पास दुर्भाग्य से आ जाओगी और वह हतभाग्य इस षड यन्त्र का शिकार होकर आँखों से उगलेगा झण्डदार आँसू।और ऐसा ही है तुम्हारा कालजयी ज्ञान जो गेहूँ रूपी बुद्धि में खरपतवारी ज्ञान के झण्डदार रूप में जन्मा है।
(इस प्रकार यह आद्य ऐतिहासिक काल की अधूरी चर्चा है जो पूरी नहीं है……….अगला प्रवचन कल होईल)
©अभिषेक पाराशर