प्रेम की राख
अंत समय में आये हो,
जलने के बाद ,
जो राख बची है,
उसमें ही संस्कार छुपे है।
मर मिटा है ये शरीर,
मस्तिष्क में याद बसी है।
नश्वर तो काया होती है,
इस स्वभाव से कौन बचा है,
आगे आया हूँ मैं अगर,
पीछे पद चिन्ह तुमने छोड़ रखे है।
उसी मिट्टी की राख को,
फूल बना के समेट रहे हो।
धीरे-धीरे जग की रीत को,
एक संस्कार से घसीट रहे हो,
सत्य से अवगत् होकर के भी,
आपस में नहीं सीख रहे हो।
जन्म मरण का है संसार,
फिर भी प्रेम से रहना भूल रहे हो।
दो गज की धरा पर लेटे,
धुवांँ-धुवांँ सा हो जाओगे,
मिट्ठी भर के ढ़ेरी में तुम भी,
इसी धरा में लुप्त हो जाओगे।
बाँट रखा जो प्रेम तूने जग में,
वह प्रेम जग में तुम्हें अमर कर रखा है।
रचनाकार-
✍🏼✍🏼
बुद्ध प्रकाश
मौदहा हमीरपुर।