प्रेम की गली
तेरे प्रेम की गर गली जो न होती
दिले चोट हम कैसे खाकर के जीते —
न होता तेरा गर ये इश्के समन्दर
तो प्यासों को कैसे बुझाकर के जीते —
न होता तेरे प्रेम का ये तराना
तरन्नुम को हम कैसे गाकर के जीते–
अफ़साना होता जो गर उल्फतों का
दास्ताए मोहब्बत सुनाकरके जीते –-
कुमुदनी न होती जो गर महफ़िलो की
तो गैरों के घर हम न जाकरके जीते –-
न होता समन्दर में गर तेरे पानी
सुखी नदियों में नावे चला करके जीते –-
ऐ दिले वेवफा जो न करती वफा
बिन तेरे हम न महफिल सजा करके जीते –-
जो न होता तेरे मन के मंदिर में मैं
शान से सर को अपने उठाकरके जीते –-
तुम जो रोशन न करती हमारी गली
हम चिरागों को अपने जलाकरके जीते –-
पिलाती जो न आज एक बूंद पानी
पपीहे सा हम तड़फडाकरके जीते –
होती न जो तेरी जन्नत सी वादी
तो हम सुनी गलियों में आकरके जीते
जो न होता तेरा ये उपकार हमपे
तो फिर मौत को हम सजा करके जीते !!