प्रेमानुभूति
तुम्हारे प्रति उमड़ रहे प्रेम को
क्या सिर्फ़ इसलिए दबा दूंँ
कि तुम उम्र में बड़ी हो थोड़ी-सी
नहीं !
मैं तुम्हारे समय की सैंडिल तोड़ दूंँगा
तुम रुक जाओगी कुछ देर
मैं बीत जाऊंँगा उतना ही !
तुम्हीं मेरी शकुंतला हो
और मैं तुमसे मिलने के लिए
तुम्हीं में ढूंँढता हूंँ तुम्हारी प्रिय सहेलियाँ
प्रियंवदा व अनुसूया
मैं कालिदास जितना महान नहीं
कि इतनी सुंदर, कोमल और सात्विक रचना स्वयं करे
अपनी आंतरिक कठोरता को पिघलाकर ;
प्रेम की ज्वाला में
और फिर वह अद्वितीय सृजन
सौंप दे किसी मृग व्यसनी दुष्यंत को !
तुम प्रिय प्रवास की राधिका
मैं पवन ; मेरी उपस्थिति रास न आई तुम्हें
तुम्हारे कहे से मुझे जाना है
वृषभ-वर से कंधों व कलभ-कर सी बाहों वाले कृष्ण के पास, संदेशा लेकर
कोई छाया, कोई विपिन मुझे मोह नहीं पाएगा
क्योंकि मैं तो पहले ही बंँध चुका हूँ
तुम्हारी प्रेमानुभूति से
मुग्ध हूंँ तुम्हारे समर्पण पर !
मैं जाऊंँगा मग़र कुछ नहीं कहूंँगा कृष्ण से जानबूझकर
बस उन्हें छू कर लौट आऊंँगा
इस लालच में
कि अपने कहे अनुसार
तुम लिपट जाओगी मुझसे
जी जाओगी लगा कर हृदय तल में मुझे!
तुम मेरी पार्वती नहीं, मेरे शिव हो
जिसे वैराग्य से प्रेम है
मैं तपस्या करूंँगा
कि शिव का सारा वैराग्य
मुझमें समा जाए
मैं तुम्हें हृदय के महल में बिठाऊंँगा राम के रूप में
और स्वयं चला जाऊंँगा
सीता बन कर
किसी बाल्मीकि के आश्रम में
वल्कल पहने !
-आकाश अगम