प्रीत
वह प्रेम की पहली अनुभूति जैसे चंचल धारा के संग में बहती।
नई उमंग नई तरंग नए सपनों की वह रेती।
जिस पर रोज लिखूं मैं, रोज मिटाऊं अपनी कामनाओं की पाती।
सुद बुध सब भूल गई मैं तो जब देखी प्रीत की बरसाती
पलके खुले और बंद हो जावे, लाज में प्रीतम की छवि ना निहारती।
मन बावरा भंवरा बनके फिरत है उन्हीं के चारों ओर।
जैसे फूलों के आकर्षण में बंध कर भंवरा करे है गुंजन फूलों के चारों ओर
वैसे ही मन मेरा गावत फिरे है प्रीत के गीत प्रियतम के चारों ओर ।
रोज नित श्रृंगार करूं फिर मनभावन का इंतजार करूं।
चकित ही रह जाए देखत वह मोहे हर बार, यह कामना बारंबार करूं।
उसकी प्रीत में पग में पहने मैंने घुंघरूं, तो वह भी मुरलीधर घनश्याम बना।
मैं नाचत ,तो वह बजावत , हम दोनों एक दूसरे में ही समावत।