प्रीत हमारी
प्रीत हमारी
चातक सम यह प्रीत हमारी
उड़ने को आकाश चाहिए।
क्षितिज तलक हो यात्रा अपनी
होना नहीं हताश चाहिए।।
भाग रहे यह दिन द्रुत गति से
पकड़ नहीं आते जाने क्यों?
लाख करे कोशिश दिन जाते
रेत फिसलती हाथों से ज्यों।
समय हमें यह प्राप्त हुआ जो
भरना नवल प्रकाश चाहिए।।
चंदा साथ चाँदनी विचरे
देख पखेरू मिलकर फिरते ।
प्रिया देश में हम परदेशी
घन समान दो नैना झरते।
मन अँधियारा छाता जाता
इसका ही अब नाश चाहिए।।
चार दिनों का जीवन प्यारे
नदिया जैसा बहता जाता।
मधु बसन्त यह बीत रहा है
पतझर झाँक रहा मुस्काता।
प्राण प्रिये है घर में व्याकुल
थोड़ा सा अवकाश चाहिए।।
डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली