प्रिय! सिंह सा दहाड़ना
स्वीकृति के रूष्ट राग में,
संशय के जब द्वार खुले हों,
अतुल, निरन्तर, अवरोधों के,
सम्मुख हो पाषाण खड़े हों,
भय सीमा में घिर जाने पर,
अंतःकरण को पुकारना,
प्रिय!सिंह सा दहाड़ना ।।1।।
मुखर,सिद्ध क्रान्ति उदित हो,
रंजित मन की प्यास उदित हो,
ठोकर की अँगड़ाई आएँ,
अनायास विषयाग्नि सताएँ,
बल पड़ गए बुद्धि पर जब,
अंतःकरण को पुकारना,
प्रिय!सिंह सा दहाड़ना ।।2।।
कालव्याल के पड़े थपेड़े,
निकट खड़ा हो शत्रु देहरी,
निर्भयता चलती थक जाएँ,
आदर्शवाद जब व्यंग भरा हो,
घिर जाओ जब कष्ट मार्ग में,
अंतःकरण को पुकारना,
प्रिय!सिंह सा दहाड़ना ।।3।।
निराधार आधार द्वन्द हो,
मित्र स्नेही सभी भिन्न हो,
संयम आँख मिचौनी खेलें,
गलित भाव निरंकुश हो,
शान्तचित्त से एक रूप में,
अंतःकरण को पुकारना,
प्रिय!सिंह सा दहाड़ना ।।4।।
©अभिषेक पाराशर ????