प्रिय माॅं
प्रिय माॅं
चाहे हर वर्ष..तू मत जताना हर्ष
पर मानना मत मुझको तुम कोई कर्ज..
मैं तुम्हारा मजबूत भविष्य हूॅं ..
इस पर करना गर्व..
मुझे अपने ऑंचल से उड़ना सिखाकर
नये ढंग से मनाना हर पर्व..
मत चाहना कि मेरी निगाहें
लाज से झुकी रहें..
बस मुझे वक्त से ऑंख मिलाने का
सलीका सिखा देना..
मेरी ख़्वाहिशों और उम्मीदों से
अपना दरीचा सजा लेना
भले ना दिलाना मुझे परिजनों के शुभाशीष
पर मुझमें कामयाबी के उन्मुक्त गगन को
छू पाने का हौसला जगा देना
भले ना बाॅंटना मुझसे..
अपने ऊबे हुए अनुभव
सहमे हुए लावण्य के अंधेरे..
पर मुझसे जोड़ देना ..
उगती हुई जागृति के सवेरे..
भले ना दिखाना मुझे भेदभाव भरे
धार्मिक षड्यंत्र.. सामाजिक प्रपंच
पर सिखाना मुझे..
गिद्धों की वीभत्स नज़रों से बचने का ढंग..
मत छुपाना मेरा भाग्य मेंहदी की लाली से
पर मेरी ऑंखों में भर देना
नई सोच की उज्जवलता..
विचारों की बुद्धिमत्ता और
मंज़िल तक पहुंचने की परिपक्वता
नहीं चाहिए मुझे गहनों से ढका अपना अस्तित्व
मुझे सजने देना शिक्षा और ज्ञान के ओज से
मुझे मिलवाना बदलाव के स्रोत से
और विलग रखना.. रूढ़ियों के बोझ से!
स्वरचित
रश्मि संजय श्रीवास्तव
‘रश्मि लहर’
लखनऊ