प्रिये तुम्हारे बाद है (पञ्चचामर छंद)
मिले जो’ तुम तो’ प्रीत की, बयार गुनगुना उठी ।
यों’ रोम-रोम खिल उठे, नजर-नजर लजा उठी ।
हजार स्वप्न जी उठे, हजार मौन गा उठे ।
अगेय छंद हो गये, अजेय पंथ पा उठे ।
गए तो श्वांस-श्वांस में, अचेतना बिखर गयी ।
जिसे न खो सका कभी, वो’ वेदना भी’ मर गयी ।
प्रशस्ति जीव तत्व की, स्वयं को’ ही जला उठी ।
असंख्य मौन रो उठे, नजर भी’ डबडबा उठी ।
अमर्त्य भाव जीव का जगा, प्रसून धुल गये ।
यों पाँखुरी स्वरुप में, त्रिनेत्र सुप्त खुल गए ।
न जीत कुछ न हार कुछ, हृदय में निर्विवाद है ।
समस्त लोक आज भी, प्रिये तुम्हारे’ बाद है ।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’